।। दोहा ।।
श्री विश्वकर्म प्रभु वन्दऊँ, चरणकमल धरिध्य़ान ।
श्री, शुभ, बल अरु शिल्पगुण, दीजै दया निधान ।।
जय श्री विश्वकर्म भगवाना ।
जय विश्वेश्वर कृपा निधाना ।।१।।
शिल्पाचार्य परम उपकारी ।
भुवना-पुत्र नाम छविकारी ।।२।।
अष्टमबसु प्रभास-सुत नागर ।
शिल्पज्ञान जग कियउ उजागर ।।३।।
अद्रभुत सकल सुष्टि के कर्त्ता ।
सत्य ज्ञान श्रुति जग हित धर्त्ता ।।४।।
अतुल तेज तुम्हतो जग माहीं ।
कोइ विश्व मँह जानत नाही ।।५।।
विश्व सृष्टि-कर्त्ता विश्वेशा ।
अद्रभुत वरण विराज सुवेशा ।।६।।
एकानन पंचानन राजे ।
द्विभुज चतुर्भुज दशभुज साजे ।।७।।
चक्रसुदर्शन धारण कीन्हे ।
वारि कमण्डल वर कर लीन्हे ।।८।।
शिल्पशास्त्र अरु शंख अनूपा ।
सोहत सूत्र माप अनुरूपा ।।९।।
धमुष वाण अरू त्रिशूल सोहे ।
नौवें हाथ कमल मन मोहे ।।१०।।
दसवाँ हस्त बरद जग हेतू ।
अति भव सिंधु माँहि वर सेतू ।।११।।
सूरज तेज हरण तुम कियऊ ।
अस्त्र शस्त्र जिससे निरमयऊ ।।१२ ।।
चक्र शक्ति अरू त्रिशूल एका ।
दण्ड पालकी शस्त्र अनेका ।।१३ ।।
विष्णुहिं चक्र शुल शंकरहीं ।
अजहिं शक्ति दण्ड यमराजहीं ।।१४।।
इंद्रहिं वज्र व वरूणहिं पाशा ।
तुम सबकी पूरण की आशा ।।१५।।
भाँति – भाँति के अस्त्र रचाये ।
सतपथ को प्रभु सदा बचाये ।।१६।।
अमृत घट के तुम निर्माता ।
साधु संत भक्तन सुर त्राता ।।१७।।
लौह काष्ट ताम्र पाषाना ।
स्वर्ण शिल्प के परम सजाना ।।१८।।
विद्युत अग्नि पवन भू वारी ।
इनसे अद् भुत काज सवारी ।।१९।।
खान पान हित भाजन नाना ।
भवन विभिषत विविध विधाना ।।२०।।
विविध व्सत हित यत्रं अपारा ।
विरचेहु तुम समस्त संसारा ।। २१।।
द्रव्य सुगंधित सुमन अनेका ।
विविध महा औषधि सविवेका ।।२२ ।।
शंभु विरंचि विष्णु सुरपाला ।
वरुण कुबेर अग्नि यमकाला ।।२३ ।।
तुम्हरे ढिग सब मिलकर गयऊ ।
करि प्रमाण पुनि अस्तुति ठयऊ ।।२४ ।।
भे आतुर प्रभु लखि सुर–शोका ।
कियउ काज सब भये अशोका ।।२५ ।।
अद् भुत रचे यान मनहारी ।
जल-थल-गगन माँहि-समचारी ।।२६ ।।
शिव अरु विश्वकर्म प्रभु माँही ।
विज्ञान कह अतंर नाही ।। २७।।
बरनै कौन स्वरुप तुम्हारा ।
सकल सृष्टि है तव विस्तारा ।। २८।।
रचेत विश्व हित त्रिविध शरीरा ।
तुम बिन हरै कौन भव हारी ।। २९।।
मंगल-मूल भगत भय हारी ।
शोक रहित त्रैलोक विहारी ।। ३०।।
चारो युग परपात तुम्हारा ।
अहै सिद्ध विश्व उजियारा ।।३१ ।।
ऋद्धि सिद्धि के तुम वर दाता ।
वर विज्ञान वेद के ज्ञाता ।। ३२।।
मनु मय त्वष्टा शिल्पी तक्षा ।
सबकी नित करतें हैं रक्षा ।।३३।।
पंच पुत्र नित जग हित धर्मा ।
हवै निष्काम करै निज कर्मा ।।३४।।
प्रभु तुम सम कृपाल नहिं कोई ।
विपदा हरै जगत मँह जोइ ।।३५।।
जै जै जै भौवन विश्वकर्मा ।
करहु कृपा गुरुदेव सुधर्मा ।।३६।।
इक सौ आठ जाप कर जोई ।
छीजै विपति महा सुख होई ।।३८।।
पढाहि जो विश्वकर्म-चालीसा ।
होय सिद्ध साक्षी गौरीशा ।।३९।।
विश्व विश्वकर्मा प्रभु मेरे ।
हो प्रसन्न हम बालक तेरे ।।४०।।
मैं हूँ सदा उमापति चेरा ।
सदा करो प्रभु मन मँह डेरा ।।४१।।
।। दोहा ।।
करहु कृपा शंकर सरिस, विश्वकर्मा शिवरुप ।
श्री शुभदा रचना सहित, ह्रदय बसहु सुरभुप ।।
।। इति श्री विश्वकर्मा चालीसा ।।
॥ श्रीगुरुदत्तात्रेयार्पणमस्तु ॥
|| श्री स्वामी समर्थापर्ण मस्तु||