(महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: त्रयोदश अध्याय:)
कामस्य शक्तिकथनेन दुर्जयत्व
कथनपूर्वकं तज्जयोपायकथनम् ।
वासुदेव उवाच ।
न बाह्यं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति भारत ।
शारीरं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति वा न वा ॥ १॥
बाह्यद्रव्यविमुक्तस्य शारीरेषु च गृह्यतः ।
यो धर्मो यत्सुखं चैव द्विषतामस्तु तत्तव ॥ २॥
द्व्यक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम् ।
ममेति द्व्यक्षरो मृत्युर्नममेति च शाश्वतम् ॥ ३॥
ब्रह्ममृत्यू ततो राजन्नात्मन्येव व्यवस्थितौ ।
अदृश्यमानौ भूतानि योधयेतामसंशयम् ॥ ४॥
अविनाशोऽस्य तत्त्वस्य नियतो यदि भारत ।
भित्त्वा शरीरं भूतानामहिंसां प्रतिपद्यते ॥ ५॥
लब्ध्वा हि पृथिवीं कृत्स्नां सहस्थावरजङ्गमाम् ।
ममत्वं यस्य नैव स्यात्किं तया स करिष्यति ॥ ६॥
अथवा वसतः पार्थ वने वन्येन जीवतः ।
ममता यस्य वित्तेषु मृत्योरांस्ये स वर्तते ॥ ७॥
ब्राह्यान्तराणां शत्रूणां स्वभावं पश्य भारत ।
यन्न पश्यति तद्भूतं मुच्यते स महाभयात् ॥ ८॥
कामात्मानं न प्रशंसन्ति लोके
नेहाकामा काचिदस्ति प्रवृत्तिः ।
सर्वे कामा मनसोऽङ्ग प्रभूता
यान्पण्डितः संहरते विचिन्त्य ॥ ९॥
भूयोभूयो जन्मनोऽभ्यासयोगाद्योगी
योगं सारमार्गं विचिन्त्य ।
दानं च वेदाध्ययनं तपश्च
काम्यानि कर्माणि च वैदिकानि ॥ १०॥
व्रतं यज्ञान्नियमान्ध्यानयोगान्कामेन
यो नारभते विदित्वा ।
यद्यच्चायं कामयते स धर्मो
नयो धर्मो नियमस्तस्य मूलम् ॥११॥
यद्यद्ध्ययं अत्र गाथाः
कामगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः ।
शृणु सङ्कीर्त्यमानास्ता अखिलेन युधिष्ठिर ।
काम उवाच ।
नाहं शक्योऽनुपायेन हन्तुं भूतेन केनचित् ॥ १२॥
यो मां प्रयतते हन्तुं ज्ञात्वा प्रहरणे बलम् ।
तस्य तस्मिन्प्रहरणे पुनः प्रादुर्भवाम्यहम् ॥ १३॥
यो मां प्रयतते हन्तुं यज्ञैर्विविधदक्षिणैः ।
जङ्गमेष्विव धर्मात्मा पुनः प्रादुर्भवाम्यहम् ॥ १४॥
यो मां प्रयतते हन्तुं वेदैर्वेदान्तसाधनैः ।
स्थावरेष्विव भूतात्मा तस्य प्रादुर्भवाम्यहम् ॥ १५॥
यो मां प्रयतते हन्तुं धृत्या सत्यपराक्रमः ।
भावो भवामि तस्याहं स च मां नावबुध्यते ॥ १६॥
यो मां प्रयतते हन्तुं तपसा संशितव्रतः ।
ततस्पपसि तस्यथ पुनः प्रादुर्भवाम्यहम् ॥ १७॥
यो मां प्रयतते हन्तुं मोक्षमास्थाय पण्डितः ।
तस्य मोक्षरतिस्थस्य नृत्यामि च हसामि च ।
अवध्यः सर्वभूतानामहमेकः सनातनः ॥ १८॥
तस्मात्त्वमपि तं कामं यज्ञैर्विविधदक्षिणैः ।
धर्मे कुरु महाराज तत्र ते स भविष्यति ॥ १९॥
(यजस्व वाजिमेधेन विधिवद् दक्षिणावता ।
अन्यश्च विविधैर्यज्ञैः समृद्ध्यैराप्तदक्षिणैः ॥)
मा ते व्यथाऽस्तु निहतान्बन्धून्वीक्ष्य पुनःपुनः ।
न शक्यास्ते पुनर्द्रष्ट्रं येऽहतास्मिन्रणाजिरे ॥ २०॥
स त्वमिष्ट्वा महायज्ञैः समृद्धैराप्तदक्षिणैः ।
कीर्तिं लोके परां प्राप्य गतिमग्र्यां गमिष्यसि ॥ २१॥
इति श्रीमन्महाभारते अश्वमेधपर्वणि
कृष्णधर्मराजसंवादे त्रयोदशोऽध्याये
कामगीता समाप्ता ॥ १३ ॥
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: त्रयोदश अध्याय:
श्रीकृष्ण द्वारा ममता के त्याग का महत्त्व, काम-गीता का उल्लेख और युधिष्ठिर को यज्ञ के लिये प्रेरणा करना
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
भारत! केवल राज्य आदि बाह्य पदार्थों का त्या करने से ही सिद्धि नहीं प्राप्त होती।शरीरिक द्रव्य का त्याग करके भी सिद्ध प्राप्त होती है अथवा नहीं भी होती है।बाह्य पदार्थों से अलग होकर भी जो शारीरिक सुख-विलास में आसक्त है, उसे जिस धर्म और सुख की प्राप्ति होती है, वह तुम्हारे साथ द्वेष करने वालों को ही प्राप्त हो।‘मम’ (मेरा) ये दो अक्षर ही मृत्युरूप है और ‘न मम’ (मेरा नहीं है) यह तीन अक्षरों का पद सनातन ब्रह्म की प्राप्ति का कारण है। ममता मृत्यु है और उसका त्याग सनातन अमृत्व है।राजन! इस प्रकार मृत्यु और अमृत दोनों अपने भीतर ही स्थित हैं।ये दोनों अदृश्य रहकर प्राणियों को लड़ाते हैं अर्थात किसी को अपना मानना और किसी को अपना न मानना यह भाव ही यद्ध का कारण है, इसमें संशय नहीं है।भरतनन्दन! यदि इस जगत की सत्ता का विनाश न होना ही निश्चित हो, तब तो प्राणियों के शरीर का भेदन करके भी मनुष्य अहिंसा का ही फल प्राप्त करेगा। चराचर प्राणियों सहित समूची पृथ्वी को पाकर भी जिसकी उसमें ममता नहीं होती, वह उसको लेकर क्या करेगा अर्थात उस सम्पत्ति से उसका कोई अनर्थ नहीं हो सकता। किंतु कुन्तीनन्दन! जो वन में रहकर जंगली फल-मूलों से ही जीवन-निर्वाह करता है, उसकी भी यदि द्रव्यों में ममता है तो वह मौत के मुख में ही विद्यमान है। भारत! बाहरी और भीतरी शत्रुओं के स्वभाव को देखिये-समझिये (ये मायामय होने के कारण मिथ्या हैं, ऐसा निश्चय कीजिये)। जो मायिक पदार्थों को ममत्व की दृष्टि से नहीं देखता, वह महान् भय से छुटकारा पा जाता है।जिसका मन कामनाओं में आसक्त हैं, उसकी संसार के लोग प्रसंसा नहीं करते हैं। कोई भी प्रवृत्ति बिना कामना के नहीं होती और समस्त कामनाएँ मन से ही प्रकट होती हैं।विद्वान पुरुष कामनाओं को दु:ख का कारण मानकर उनका परित्याग कर देते हैं।योगी पुरुष अनेक जनमों के अभ्यास से योग को ही मोक्ष का मार्ग निश्चित करके कामनाओं का नाश कर डालता है। जो इस बात को जानता है, वह दान, वेदाध्ययन, तप, वेदाक्त कर्म, व्रत, यज्ञ, नियम और ध्यान-योगादि का कामनापूर्वक अनुष्ठान नहीं करता तथा जिस कर्म से वह कुछ कामना रखता है, वह धर्म नहीं है। वास्वत में कामनाओं का निग्रह ही धर्म है और वही मोक्ष का मूल है। युधिष्ठिर! इस विषय में प्राचीन बातों के जानकार विद्वान एक पुरातन गाथा का वर्णन किया करते हैं, जो कामगीता कहलाती है।उसे मैं आपको सुनाता हूँ, सुनिये।
कामदेव कहते है -
काम का कहना है कि कोई भी प्राणी वास्तविक उपाय (निर्ममता और योगाभ्यास) का आश्रय लिये बिना मेरा नाश नहीं कर सकता है।
जो मनुष्य अपने में अस्त्रबल की अधिकता का अनुभव करके मुझे नष्ट करने का प्रयत्न करता है, उसके उस अस्त्रबल में मैं अभिमानरूप से पुन: प्रकट हो जाता हूँ।
जो नाना प्रकार की दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा मुझे मारने का यत्न करता है, उसके चित्त में मैं उसी प्रकार उत्पन्न होता हूँ, जैसे उत्तम जंगम योनियों में धर्मात्मा।
जो नाना प्रकार की दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा मुझे मारने का यत्न करता है, उसके चित्त में मैं उसी प्रकार उत्पन्न होता हूँ, जैसे उत्तम जंगम योनियों में धर्मात्मा।
जो वेद और वेदान्त के स्वाध्याय रूप साधनों के द्वारा मुझे मिटा देने का सदा प्रयास करता है, उसके मन में मैं स्थावर प्राणियों में जीवात्मा की भाँति प्रकट होता हूँ।
जो सत्यपराक्रमी पुरुष धैर्य के बल से मुझे नष्ट करने की चेष्टा करता है, उसके मानसिक भावों के साथ मैं इतना घुल-मिल जात हूँ कि वह मुझे पहचान नहीं पाता।
जो कठोर व्रत का पालन करने वाला मनुष्य तपस्या के द्वारा मेरे अस्तित्व को मिटा डालने का प्रयास करता है, उसकी तपस्या में ही मैं प्र्रकट हो जाता हूँ।
जो विद्वान पुरुष मोक्ष का सहारा लेकर मेरे विनाश का प्रयत्न करता है, उसकी जो मोक्षविषयक आसक्ति है, उसी से वह बँधा हुआ है।
यह विचार कर मुझे उस पर हँसी आती है और मैं खुशी के मारे नाचने लगता हूँ।
एकमात्र मैं ही समस्त प्राणियों के लिये अवध्य एवं सदा रहने वालो हूँ।
अत: महाराज! आप भी नाना प्रकार की दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा अपनी उस कामना को धर्म में लगा दीजिये।
वहाँ आपकी वह कामना सफल होगी।
विधिपूर्वक दक्षिणा देकर आप अश्वमेध का तथा पर्याप्त दक्षिणावाले अन्याय समृद्धशाली यज्ञों का अनुष्ठान कीजिये।
अपने मारे गये भाई-बंधुओं को बारंबार याद करके अपने मन में व्यथा नहीं होनी चाहिये।
इस समरांगण में जिनका वध हुआ है, उन्हें आप फिर नहीं देख सकते।
इसलिये आप पर्याप्त दक्षिणावाले समृद्धशाली महायज्ञों का अनुष्ठान करके इस लोक में उत्तम कीर्ति और परलोक में श्रेष्ठ गति प्राप्त करेंगे।
इस प्रकार आश्वमेध के पर्वाणि पर्व के अन्तर्गत अश्वमेध पर्व में श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठर का संवादविषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
इती कामगीता समाप्त ।
॥ श्रीगुरुदत्तात्रेयार्पणमस्तु ॥
|| श्री स्वामी समर्थापर्ण मस्तु||