।श्री गणेशाय नमः।
श्री स्वामी सामर्थाय नमः ।
॥ दोहा ॥
श्री शनिश्चर देवजी । सुनहु श्रवण मम टेर।
कोटि विघ्ननाशक प्रभो । करो न मम हित बेर॥
॥ सोरठा ॥
तव स्तुति हे नाथ । जोरि जुगल कर करत हौं।
करिये मोहि सनाथ । विघ्नहरण हे रवि सुवन॥
॥ चौपाई ॥
शनि देव मैं सुमिरौं तोही । विद्या बुद्धि ज्ञान दो मोही।
तुम्हरो नाम अनेक बखानौं । क्षुद्रबुद्धि मैं जो कुछ जानौं।
अन्तक , कोण , रौद्रय मगाऊँ । कृष्ण बभ्रु शनि सबहिं सुनाऊँ।
पिंगल मन्दसौरि सुख दाता । हित अनहित सब जग के ज्ञाता।
नित जपै जो नाम तुम्हारा । करहु व्याधि दुख से निस्तारा।
राशि विषमवस असुरन सुरनर । पन्नग शेष साहित विद्याधर।
राजा रंक रहहिं जो नीको । पशु पक्षी वनचर सबही को।
कानन किला शिविर सेनाकर । नाश करत सब ग्राम्य नगर भर।
डालत विघ्न सबहि के सुख में । व्याकुल होहिं पड़े सब दुख में।
नाथ विनय तुमसे यह मेरी । करिये मोपर दया घनेरी।
मम हित विषयम राशि मंहवासा । करिय न नाथ यही मम आसा।
जो गुड उड़द दे वार शनीचर । तिल जब लोह अन्न धन बिस्तर।
दान दिये से होंय सुखारी । सोइ शनि सुन यह विनय हमारी।
नाथ दया तुम मोपर कीजै । कोटिक विघ्न क्षणिक महं छीजै।
वंदत नाथ जुगल कर जोरी । सुनहुं दया कर विनती मोरी।
कबहुंक तीरथ राज प्रयागा । सरयू तोर सहित अनुरागा।
कबहुं सरस्वती शुद्ध नार महं । या कहु गिरी खोह कंदर महं।
ध्यान धरत हैं जो जोगी जनि । ताहि ध्यान महं सूक्ष्म होहि शनि।
है अगम्य क्या करूं बड़ाई । करत प्रणाम चरण शिर नाई।
जो विदेश में बार शनीचर । मुड कर आवेगा जिन घर पर।
रहैं सुखी शनि देव दुहाई । रक्षा रवि सुत रखैं बनाई।
जो विदेश जावैं शनिवारा । गृह आवैं नहिं सहै दुखाना।
संकट देय शनीचर ताही । जेते दुखी होई मन माही।
सोई रवि नन्दन कर जोरी । वन्दन करत मूढ मति थोरी।
ब्रह्मा जगत बनावन हारा । विष्णु सबहिं नित देत अहारा।
हैं त्रिशूलधारी त्रिपुरारी । विभू देव मूरति एक वारी।
इकहोइ धारण करत शनि नित । वंदत सोई शनि को दमनचित।
जो नर पाठ करै मन चित से । सो नर छूटै व्यथा अमित से।
हौं सुपुत्र धन सन्तति बाढ़े । कलि काल कर जोड़े ठाढ़े।
पशु कुटुम्ब बांधन आदि से । भरो भवन रहिहैं नित सबसे।
नाना भांति भोग सुख सारा । अन्त समय तजकर संसारा।
पावै मुक्ति अमर पद भाई । जो नित शनि सम ध्यान लगाई।
पढ़ै प्रात जो नाम शनि दस । रहै शनीश्चर नित उसके बस।
पीड़ा शनि की कबहुं न होई । नित उठ ध्यान धरै जो कोई।
जो यह पाठ करै चालीसा । होय सुख साखी जगदीशा।
चालिस दिन नित पढ़ै सबेरे । पातक नाशे शनी घनेरे।
रवि नन्दन की अस प्रभुताई । जगत मोहतम नाशै भाई।
याको पाठ करै जो कोई । सुख सम्पत्ति की कमी न होई।
निशिदिन ध्यान धरै मन माही । आधिव्याधि ढिंग आवै नाही।
॥ दोहा ॥
पाठ शनीश्चर देव को । कीन्हौं विमल तैयार।
करत पाठ चालीस दिन । हो भवसागर पार॥
जो स्तुति दशरथ जी कियो । सम्मुख शनि निहार।
सरस सुभाषा में वही । ललिता लिखें सुधार।
इति श्री शनी चालीसा ।
॥ श्रीगुरुदत्तात्रेयार्पणमस्तु ॥
|| श्री स्वामी समर्थापर्ण मस्तु||